शादी यह विश्वभर में मनाए जाने वाला एक परिवाहिक त्यौहार है। हालांकि यह एक मात्र त्यौहार है जिसकी तारीख प्रत्येक जोड़े के लिए भिन्न भिन्न हैं। चाहे शादी की प्रथा सभी धर्म में अलग हो परन्तु यह पल दो परिवारों और दो आत्माओं के लिए सबसे खास लम्हा होता है। हिन्दू धर्म में पत्नियों को अर्धांगिनी कहा जाता है यानी आधा अंग जो इस बात की पैरवी करता है कि व्यक्ति जिस प्रकार अपने एक भी अंग के ठीक से काम न करने के कारण विकलांग के श्रेणी में गिनते हैं ठीक व्यक्ति अपनी पत्नी या पत्नी अपने पति के बिना विकलांग सम्मान ही है। अगर आप भी उनमें से है जो इस शादी का लड्डू खा चुके हैं या खाने के लाइन में खड़े हुए हैं तो आप यह जानने के भी इछुक होंगे कि यह शादी की परंपरा कहाँ से शुरू हुई। इसका उत्तर है भगवान शिव, जिन्हें हम महाकाल और भी कई नाम से पुकारते हैं। हिन्दू समाज मे शिव जी और पार्वती माँ की जोड़ी को सबसे पवित्र जोड़ी कहा जाता है। नए जोड़े के लिए शिव जी और पार्वती माँ का आशीर्वाद किसी वरदान से कम नहीं अगर जोड़े ने भगवान शिव और माँ पार्वती को प्रसन्न कर दिया और आशीर्वाद प्राप्त कर लिया तो उस जोड़े को कोई व्यक्ति नहीं तोड़ सकता।
शिव जी और माँ पार्वती की देन विवाह
विवाह बंधन,रस्म इसके अस्तित्व में लाने का श्रेय शिव जी और माँ पार्वती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि इससे पहले कभी कोई जोड़े विवाह सम्बंध में बंधे नहीं परन्तु इस विवाह से पूर्व विधिवत प्रक्रिया नहीं थी। इस शादी से पहले देव-देवी आपस मे वरण कर लेते थे परन्तु यह शादी शिव जी श्रिष्टि की व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए किया।
जब ब्रह्मा जी ने इस श्रिष्टि की रचना की, उस वक्त सब कुछ स्थिर था, किसी भी वस्तु में गति की सरंचना नहीं थी, उस वक्त प्राणियों में अपनी संख्या बढ़ाने के लिए कोई माध्यम न होने के कारण, ब्रह्मा जी को स्वयं निर्माण करना होता। ब्रह्मा जी को श्रिष्टि रचने का दायित्व भगवान विष्णु द्वारा सौंपा गया था, परन्तु इतना सब कुछ करने के बावजूद श्रिष्टि का विकास नहीं हो पा रहा था, जिससे ब्रह्मा जी काफी चिंतित हो गए विष्णु जी के पास पहुंचे। विष्णु जी ने उन्हें विकल्प खोजने की तलाश के लिए कहा और कहा कि शिव के समक्ष पहुंचे उनके पास इस प्रशन का हल हो सकता है। शिव जी इस प्रशन का हल जानने के लिए ब्रह्मा जी ने कठिन तप किया, जो कि 12 वर्षो तक चला। इस परिश्र्म से भगवान शिव बेहद प्रशन हुए और ब्रह्मा जी को दर्शन दिए। भगवान शिव के समक्ष ब्रह्मा जी ने प्रशन का उत्तर बताने के लिए पूछा। भगवान शिव ने ब्रह्मा जी से मैथुनी सृष्टि की रचना करने को कहा। जिसके तहत पुरुष और स्त्री के संयोग से सृष्टि आगे बढ़ेगी। शिव जी ने यही व्यवस्था हर जीव में करने को कहा।
ब्रह्मा जी सबसे पहले नारी की रचना की जिसका रूप शिव जी ने दिखाया कि नारी कैसी दिखेगी जिसके तहत यह रचना हुई उसके पश्चात नर की हुई। मैथुनी सृष्टि की रचना करने हेतु नर को अलग विशेषताओं से बनाना था इसीलिए नर नारी से थोड़े अलग होते हैं। इसी मैथुनी रचना को स्थापित करने के लिए शादी की परंपरा का विकास हुआ और प्रथम विवाह शिव जी एवं पार्वती माँ के बीच हुआ। शिव विवाह की योजना बनाई गई। ब्रह्मा ने प्रजापति दक्ष को आदेश दिया कि अपनी सर्वगुणसंपन्न पुत्री सती का विवाह सदाशिव के साथ करें। दक्ष ने ब्रह्मा के आदेश पर शिव-सती विवाह की तैयारी की। इस प्रकार भगवान शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की कन्या सती से हुआ था। विवाह की परंपरा तो बन गई अब दांपत्य जीवन के नियम भी स्थापित करने थे। इसके लिए पुनः लीला हुई। शिव और सती का विवाह फिर सती का दाह यह सब लीलावश हुआ था। इसके पीछे मानव सभ्यता को दांपत्य जीवन के गुर सिखाने का लक्ष्य था। इस लीला के लिए दक्ष को चुना गया। दक्ष को भगवान ने मोहित किया। शिव जिनके दामाद हों उस दक्ष के लिए इससे ज्यादा सौभाग्य की बात क्या हो सकती है। पर यदि दामाद-ससुर, पुत्री-पिता के बीच के आचरण को परिभाषित न किया जाता तो दांपत्य जीवन का सही रहस्य कैसे एता चलता। परन्तु यह चिंता वाली बात है लोग इसको समझ नहीं पाते हैं और इसे दामाद और ससुर का विवाद समझ लेते हैं। परन्तु ऐसा नहीं है। एक बार दक्ष प्रजापति देव समूह में पहुंचे, तो सभी उन्हें देखकर उठ खड़े हुए.ब्रह्माजी और भगवान शिव बैठे ही रहे। दक्ष को प्रजापति बनाया गया था। वह इस अहंकार से भरे थे। ब्रह्मा तो पिता है इसलिए उनके न खड़े होने को वह सहन कर गए। पर शिव तो मेरे दामाद हैं। देवाधिदेव हैं तो क्या हुआ, हैं तो मेरे दामाद फिर भी यह निरादर. दक्ष तिलमिला उठे। उन्होंने कहा- सांसारिक रूप से आप मेरे जामाता हैं। मेरा सम्मान करना आपका धर्म है लेकिन आप आचरण से विहीन हैं। मैंने पिताजी के सुझाव पर आपसे पुत्री ब्याह दी पर बड़ी भूल हुई। अयोग्य को मैंने कन्या दे दी। दक्ष ने घमंड में शाप दिया- हे शिव अब आपको इंद्रादि देवताओं के साथ इसे यज्ञ का भाग न मिले। यह कहकर वह गुस्से में वहाँ से चले गए।
उसी वक्त नंदी जी ने दक्ष यज्ञकर्ता ब्राह्मणों को श्राप दे दिया की वह अब से हर वक्त मांगके ही अपना गुजारा करेंगे। यह सुनकर उस यज्ञ में मुख्य आचार्य भृगु ने भी पलटकर शाप दिया जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हों वे ही शैव संप्रदाय में दीक्षित हों। जिनमें सुरा और आसव देवता समान आदरणीय हों। तुम पाखंड मार्ग में जाओ , जिनमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं।
जैसे कर्मकांडी ब्राह्मण या जैसी तांत्रिक क्रियाएँ शैव संप्रदाय में बाद में आईं, ये शाप उनका संकेत करते हैं।
थोड़े समय के पश्चात दक्ष ने महायज्ञ किया, सभी अपने परिचितों को न्योता दिया परन्तु शिव जी अपनी पुत्री को नहीं बुलाया। सती शिव जी का अपमान न सह पाई और न बुलाए जाने पर भी महायज्ञ पहुंची और स्वयं के शरीर को अग्नि के हवाले त्याग दिया। जब शिव ने यह सुना तो एक जटा से अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के अंश-वीरभद्र को प्रकट किया। उसने दक्ष का महायक्ष विध्वंस कर डाला। शिव ने अपनी प्रिया सती के शव को लेकर भयंकर संहारक तांडव किया। जब संसार जलने लगा और किसी का कुछ कहने का साहस न हुआ तब भगवान ने सुदर्शन दिया। शवविहीन होकर शिव शांत हुए। चक्र से शव का एक-एक अंश काट जहां भिन्न-भिन्न अंग कटकर गिरे वहां शक्तिपीठ बने। ये 52 शक्तिपीठ, जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्याँमार) तक फैले हैं, देवी की उपासना के केंद्र हैं। यही सती अगले जन्म पार्वती माँ के रूप में जन्म लिया । शिव जी का पार्वती माँ के साथ विवाह हुआ और समय के साथ साथ अन्य रस्में भी बनती गई।